शोकगीत का पोस्टमार्टम / निमेष निखिल
भगाना है किरनोँ से मार-मार कर कमरे में बचे हुवा अँधियारे को । भूख झाँक रही है बेशर्म नरदौआ में से रोग रो रहा है आँखोँ के सामने खदेडना है...
एक टुकड़ा बादल और मेरे सपने / कृष्ण पाख्रिन
जब देखता हूँ मैं तुम्हें आकाश की तरह नीचे आ कर झुकी हुई होती हो पहाड़ी के माथे पर, और बिखरी हुई होती हो क्षितिज के ऊपर, मानो आकाश में कहीं...
काठमान्डू की धूप / अभि सुवेदी
काठमान्डू अपने अनेक धूप और अनेक मूहँ से बोलता है। पथ्थर के वाणी पे तरासा हुवा मन से काठमान्डू अपना प्राचीन मूहँ खोल सैलानियोँ से...
घूमनेवाली कुर्सी पे एक अंधा / भूपी शेरचन
भर दिन खुश्क बाँस की तरह खुद का खोखले वजुद पे उँघकर, पछता कर भर दिन बीमार चकोर की तरह खुद के सीने पे खुद ही चोंच मारमार कर, जख्मों को...
अभिनय / गण्डकीपुत्र
छुप जाते हैँ सब कुछ जहर रखेँ या अमृत जीवन रखेँ या मृत्यु पर्दा लग जाने के बाद बाहर से कुछ दिखाई नहीं दिखाई देता है सिर्फ पर्दा । जिस तरह...
माँ के बारे में / धिरज राई
बडी मुस्किल में पड गया अब, कैसे करूँ मैं माँ का परिभाषा? अगर पूछा होता मेरे बारे में तो आसानी से कह सकता था- हर रोज जो खबर पढ्ते हो तुम...
समय और कवि / निमेष निखिल
लिख लिख कर मन का रोने से निकले हुए पंक्तियों को अव्यवस्थाओँ के प्रसंग और प्रतिकूलताभरी लम्हों को भयभीत है कवि कहीँ भाग न जाए पीडाओँ के...
लालसा / हरिभक्त कटुवाल
पिताजी, मैं स्कूल नहीं जाउँगा इतिहास पढाते हैँ वहाँ, जंग लगे मेसिनो के पूर्जे जैसे मरे हुए दिनों का, और अब तो गणित के सुत्र भी बहुत ही...