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और भी हरी हुई थी / सुमन पोखरेल


दिल मे तब भी तेरी ही मुहब्बत भरी हुई थी

तेरे मिलने से दाग-ए-दिल और भी हरी हुई थी

उन से मिल के लौट आया मैं जो घर अपना

कमरे में खुस्बु-ए-हुश्न-ए-यार विखरी हुर्इ थी

नादान चाँद बेखबर ढुँडता रहा जिसे रात भर

वह चाँदनी शाम को ही मेरे कमरे मे उतरी हुर्इ थी

अनजाने में छुट गयी थी जो शाख कटने से

बारिश हुई तो वही शाख मेरी छतरी हुर्इ थी

पहुँचा हूँ यहाँ तक उसी राह चलकर मैं सुमन !

जिस राह के बीच में मेरी तकदीर मरी हुर्इ थी

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