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क्षितिज का रंग


हर सुबह के उपर कुछ पल खडे हो कर

हर शाम के पास कुछ देर रूक कर

खुद को भूल देख रहे हैं मेरी नजरेँ

रोशनी के साथ साथ समेट रहेँ है मेरी पलकेँ,

क्षिति के अन्तिम किनारे पे टकराकर रंगे हुए आकाश को।

सोच रहा हूँ;

यह रक्तता

एक दुसरे से जुदा हो के विपरित रास्ते को चले युगल के

टुटे हुए हृदय का रंग है, या

वियोग की अंधेरी मौषम के बाद जुडे दिलों पे खिली हुई

मिलन की रक्तिम रोशनी !

दिन को खोलनेवाले फाटक और बन्द करनेवाले दरवाजे पे बिखरे हुए

इन्ही लालिमाओँ को देखते देखते

आधा जीवन रंग ही रंग से भिग चुका, मगर

समझ न पाया

कि

यह धर्ती और आकाश

शाम को जुदा हो के सुबह को मिलते हैं

या

सुबह को बिछुड्कर शाम को मिला करते हैँ!

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