राही / महाकवि लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा
किस मंदिर को जाओगे राही, किस मंदिर पे जाना है ?
किस सामान से पूजा करना, साथ कैसे ले जाना है ?
मानवों के कंधे चढकर, किस स्वर्ग को पाना है ?
अस्थियों के सुन्दर खम्भे, मांसपिंड के दीवारे
मस्तिष्क का ये सुनहरा छत, इंद्रियों के दरवाजे
नस-नदी के तरल तरंगें खुद एक मंदिर अपार
किस मंदिर को जाओगे राही, किस मंदिर के दर ?
दिल का सुन्दर सिंहासन पे है जगदीश्वर का राज
चेतन का यह ज्योति हिरण्य, उस का सर का ताज
शरीर का ये सुन्दर मन्दिर विश्वक्षेत्र के माँझ
ईश्वर है अंदर, बाहरी आँखों से ढूँढते फिरे हो कौन सा पुर ?
रहता है ईश्वर गहराइयों में, सतहों पे बहते हो कितनी दूर ?
ढूँढते हो ? हृदय उबा लो ज्योत जला के भरपूर ।
दोस्त राही, सर-ए-सडकों पे चलता है ईश्वर साथ-साथ
चुमता है ईश्वर काम सुनहरा कर रहा इंसानी हाथ
छूता है वो अपने तिलस्मी हाथों से सेवकों के माथ
सड़क किनारे गाता है वो चिड़ियों के तानों में
बोलता है ईश्वर इंसानों के दुःख दर्द के गानों में
दर्शन किन्तु देता नहीं वो, चर्म-चक्षु से कानों में
किस मंदिर को जाओगे राही, किस नवदेश के वीरानों में ?
वापस आओ, जाओ पकडो इंसानों के पाँव को
मरहम लगा लो आर्तों के चहराते हुए घाव को
मानव हो के हँसा लो यह ईश्वर का दिव्य मुहार को
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(मूल नेपाली से सुमन पोखरेल द्वारा अनूदित)
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Lakshmiprasad Devkota translated into Hindi by Suman Pokhrel
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