बिदा होते हुए

सारी खिड्कीयाँ देख रही हैँ जैसा भी लग ही रहा था

सारे दिवारें सुन रहे हैं जैसा भी लग ही रहा था

उस वक्त

वे सडके और फुटपाथ बोल रहे हैँ जेसा भी लग ही रहा था

अपने अपने आवरण खोल रहे हैं जैसा भी लग ही रहा था ।

मेरे चलते रहने पे भी

मेरे रुकते रहने पे भी

सारे

वृक्ष और चिडीयाँ

आकाश और बिजलियाँ

वक्ष और चुडीयाँ

देख रहे थे जैसा भी लग ही रहा था ।

रुकेँ या चलेँ की

उतर जाएँ या चढ जाएँ की

उस दुविधा में

सारे रास्ते अगम्य हैँ,

जैसा भी लग ही रहा था ।

कुछ फटे हुए

कुछ टुटे हुए

कुछ चट्के हुए

कुछ आकाङ्क्षाओं को पढ भी लिया था

परिवेशों के चेहरों पे ।

कुछ वाक्यों को छू भी लिया था

कुछ शब्दों को चूम भी लिया था ।

नजरेँ रोकें रास्ते को

तो उन्हे सरकाया भी जा सकता,

पर अनगिनत दिल रोके अगर रास्ता

तो फिर क्या करेँ ?

इस लिए

उन खिड्‌कियों और दिवारों को

अनदेखा सा भी किया था ।

उस वक्त

मेरे विरुद्ध मे कोई षडयन्त्र हो रहा है

जैसा भी लग ही रहा था ।

मेरे शब्दों पे

मुझे ही प्रहार करने का सन्यन्त्र ढुँडे जा रहे हैँ

जैसा भी लग ही रहा था ।

वे आँखेँ और दृष्टीयाँ

भावना के फूलों की एक नदी को कहीं भेज रहे हैँ

जैसा भी लग ही रहा था ।

कल्पना के सुगन्धों का एक पहाड को कहीं उभार रहे हैँ

जैसा भी लग ही रहा था ।

उस वक्त, मेरा दिल

प्रेम का आनन्द पे सो रहा है जैसा भी लग ही रहा था ।

जीवन के संवेदनशील टहनियों को तोड्ते हुए

कोई निरस मोह मुझे ले के कहीं जा रहा है

जैसा भी लग ही रहा था ।

उन क्षणों मे

मेरा मानस सुखे अनुभवों का मरुस्थल पे ही

सौन्दर्य को खिलाने का ठान कर

जिने के लिए जग रहा है,

जैसा भी लग ही रहा था ।

मै अभी जिस जगह पे हूँ

मत सोचिएगा

कि

मै यहाँ पहाड का फिसलने की तरह बह बह के पहुँचा हूँ

या बादल की तरह वाषिप्कृत हो कर ।

अपना कोमल दिल पे

वक्त का तलवार घोँप कर

उसी की मूठ को पकड कर उपर निकल आया हूँ ।

किसी को याद दिलाने से भी, न दिलाने पे भी

दुखता रहता है जीवन का एक अंश

मेरा सिना पकडकर ।

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कवि द्वारा मूल नेपाली से अनुदित

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#समनपखरल #SumanPokhrel

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